updatenews247.com धंनजय जाट आष्टा 7746898041- उत्तम त्याग धर्म के अवसर पर मुनि श्री विनंद सागर जी महाराज ने कहा अंतरंग की विशुद्धि ही त्याग की प्रेरणा देती है ।इस त्याग के बिना संसार से ना तो कोई पार हुआ है ना होगा। घर में अगर सुख होता तीर्थंकर इसको क्यों छोड़ते। वास्तव में त्याग , क्रोध, मान, माया, ईर्ष्या, कामविकार इच्छाएं आदि विकारों को शमन करना हैं।धर्म भावों पर निर्भर करता है, धर्म वहां है जहां विकारी भाव का अभाव हो चुका है यह विकारी भाव हमें संसार से पार नहीं होने देते। जैसे हम इन विकारों को त्यागेंगे वैसे ही इनके विपरीत सद्गुण हमारे अंदर उत्पन्न होते जाएंगे। यह दसलक्षण धर्म का सार इन विकारों को त्यागने से ही हमारे अंदर आएगा।
आत्म कल्याण का विचार करने वाला व्यक्ति परिवार से मोह, धन, परिग्रह आदि विकारों को अपनी साधना में बाधक मानता है । मुनिश्री ने कहा कि घर में रहकर हम अपना हित नहीं कर सकते, अतः इनका मोह छोड़कर इनका विसर्जन करना चाहिए। हमने दान को त्याग से जोड़ रखा है जबकि दान और त्याग दोनों अलग है ।दान पुण्य की क्रिया है और त्याग आत्मतत्व को पाने का मार्ग है। त्याग उपयोगी एवं अनुपयोगी दोनों वस्तुओं का किया जाता है ,हमें हमारे जीवन में सप्त व्यसन का त्याग करना चाहिए। मांस, मधु, मद्य, परस्त्री सेवन, जुआ, शिकार, वैश्यागमन यह सप्त व्यसन नरक के द्वार ले जाने वाले हैं जो अशुद्धता का प्रतीक है। उन वस्तुओं का उपयोग अपने जीवन में नहीं करना चाहिए।यह अशुद्ध वस्तुएं अंतरंग विचारों को अशुद्ध करती हैं ।आत्मा को मलिन करती हैं ,इसलिए इनका त्याग करना चाहिए।
यह विचारणीय तथ्य है जिन हिंसक वस्तुओं में हमारी आसक्ति बैठ गई है और उनके न मिलने पर परिणाम खराब होते हैं।क्रोध आ जाता है ,मनोविकार पैदा हो जाते हैं ,ऐसी वस्तुओं का त्याग करना चाहिए। दूसरी ओर जो अच्छा शाकाहारी है किंतु आसक्ति बहुत ज्यादा है तो वह भी त्यागने योग्य है ।हमें वस्तुओं को नहीं वस्तुओं के प्रति आसक्ति का त्याग करना है। त्याग केवल स्वयं के उपकार के लिए किया जाता है। मुनिश्री विनंद सागर महाराज ने कहा हमारे जीवन में चार प्रकार के दान दिए जाते हैं। औषधि, आहार, ज्ञान और अभय दान,यह दान श्रेष्ठ हैं दोनों में भी आहार और औषधि त्यागने योग्य हैं ,जबकि ज्ञान दान और अभय दान निर्मलता पाने के चरण है ।त्याग हमारी शक्ति को बढ़ाने वाला ही है जो आंतरिक तौर पर मजबूत बनाता है ।ऐसा न विद्या न तपो न दानम
ते मनुष्यरूपेण मृगास्चरन्ति ।जो मनुष्य योग्य होते हुए भी दान नहीं करते हैं ,वह पशु के समान, मृग के समान पृथ्वी पर चरते रहते हैं।अतः त्याग धर्म अंगीकार कर अपना कल्याण करना चाहिए।
दसलक्षण धर्म का नोवा अंग आकिंचन धर्म है 9 शाश्वत अंक है ।अतः नवें स्थान पर आया धर्म का अंगीकार करने से शाश्वत सुख की प्राप्ति हुआ करती है। आकिंचन धर्म एकत्व भाव लिए होता है। मैं शुद्ध हूं, ज्ञानी हूं, इंद्रियों द्वारा जानने वाला नहीं हूं ।बाह्य परिग्रह केवल संयोग मात्र है ,घर -दुकान, पत्नी -पुत्र, रिश्तेदार यह सब संयोग है ,एक दिन सब छोड़ कर जाना है।किंतु मोह हमें स्वीकार ही नहीं करने देता कि हमें छोड़कर जाना है इसलिए इकट्ठा करते रहते हैं। किसी वस्तु अथवा संपत्ति में जो अपनेपन का भाव है वही दुख देता है जैसे किसी सेठ का मकान जल गया अब सेठ के पुत्र ने आकर कहां किया मकान का सौदा कल कर दिया था जब तक जल रहा था जब तक उसे अपना मान रहा था तब तक तो सेठ रो रहा था किंतु जैसे ही उसे पता चला की पुत्र ने सौदा कर दिया उसका अपनापन संपत्ति से खत्म हो गया
तो दुःख भी चला गया।संयोग को अपना मान लेना यह गलत धारणा है गलत का ग और धारणा का धा यह गलत धारणा हमें गधा बना देती है।सम्यक दृष्टि जीव परिग्रह को व्यवहार से अपना मानता है और निश्चय से संयुक्त देखता है और स्वयं को संसार शरीर भोग से भिन्न दिखता है। ऐसा जीव घर में रहकर भी वैरागी, सम्यकदृष्टि हुआ करते है, हम जानते हैं कि हमारी आयु पल-पल घट रही है संभल जाना चाहिए। आयु के साथ-साथ हमें इच्छाएं,परिग्रह, कषाय, दुर्गुण ,विकार भी घटाना चाहिए ।इससे पूर्व की आयु खत्म हो जाए। अपने परिग्रह को पुण्य में परिवर्तित कर लेना चाहिए, वही साथ जाएगा बाकि कुछ साथ जाने वाला नहीं है ।हमें परिग्रह नहीं छोड़ना बल्कि उसके प्रति जो हमारा ममत्व भाव है ,अपनेपन का भाव है उसे छोड़ना है ।
यह ममत्व भाव जब तक हमारे अंदर है तब तक आकिंचन धर्म हमारे अंदर प्रवेश नहीं कर सकता।दुनिया में चार प्रकार के लोग होते हैं मेरा सो मेरा और तेरा भी मेरा पर विचार करते हैं, वे निकृष्ट हुआ करते है।दूसरे मेरा सो मेरा तेरा सो तेरा ऐसे लोग संतोषी हुआ करते हैं। तीसरे तेरा सो तेरा और मेरा भी तेरा,ऐसे लोग श्रेष्ठ हुआ करते हैं ।उदार हृदय वाले होते है और चौथे ऐसे जीव जो ना मेरा ना तेरा यह संसार असत्य है, ऐसी सोच ऐसा आकिंचन धर्म केवल मुनिराज में होता है।परिग्रह 24 प्रकार का हुआ करते हैं। बाह्य परिग्रह 10 प्रकार का और अंतरंग परिग्रह 14 प्रकार का हुआ करता है ,जिन्होंने मन वचन काय से सब कुछ छोड़ा है ,उन्होंने ही सब कुछ पाया है। मुनिश्री ने कहा देह की माटी से अमृत निचोड़ता हूं इसलिए वैभव से नहीं विराग से नाता जोड़ता हूं।