updatenews247.com धंनजय जाट आष्टा 7746898041- जैन आगम में व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व के गुणों की पूजा, वंदना, भक्ति के लिए निर्देशित किया गया है। आचार्य भगवंत विद्यासागर महाराज ने हमारी दीक्षा के पश्चात कहा कि आप सभी को आज प्रवचन देना है, हमें कुछ बोलना ही नहीं आता था। उन्होंने कहा आप सभी को चौबीसी भगवान के नाम क्रमानुसार याद है, हमने हां कहा तो आचार्य भगवंत ने कहा वही बोले।चौबीसी भगवान के नाम का स्मरण करने से पुण्य अर्जन और असंख्यात कर्मों का क्षय होता है। पाप कर्म के उदय के कारण पंचम काल में जन्म लिया। अन्न का क्रीड़ा यह शरीर बना हुआ है।

आचार्य भगवंत विद्यासागर महाराज ने कहा कि श्रावक श्राविकाओं का आभार व आशीर्वाद प्रदान करें, क्योंकि यह आपके आहार -निहार की व्यवस्था करते हैं। पंचम काल के प्रारंभ में कुछ ही साधु -संतों के दर्शन होते थे।संत भीषण गर्मी और कड़ाकेदार ठंड में फर्श पर लेटकर भी अपनी तपस्या व चर्या करते हैं। वह ध्यान कर रहे हैं आत्मा, भगवान का। उक्त बातें नगर के श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन दिव्योदय अतिशय तीर्थ क्षेत्र किला मंदिर पर चातुर्मास हेतु विराजित पूज्य गुरुदेव मुनिश्री निष्काम सागर महाराज ने आशीष वचन देते हुए कहीं। वहीं नगर के चंद्रप्रभ दिगंबर जैन मंदिर अरिहंत पुरम में विराजमान मुनि श्री विनंद सागर जी महाराज ने कहा कि आज के सामाजिक परिवेश में लोगों की जैसी मानसिकताएं हैं

उन्हें देखकर के कुछ पीड़ा तो होती हैं ,हमें क्रोध ,मान , माया,लोभ का इस तरह रंग चढ़ा हुआ है कि हम स्वयं को उच्च और दूसरे को नीचे बताने में पीछे नहीं हटते ।हम अपने जीवन में अनेक गलतियां करते हैं। माता-पिता के संस्कारों के साथ जब हम सुधार अपने व्यवहार में व आचरण में बदलाव लाते है तो हमारे जीवन में नई रोशनी आती है ।लेकिन यदि हम गलत संगत में चले जाएं और गलत कार्य करने लगे तो यह हमारे संस्कारों के विरुद्ध कार्य होगा ।जब कोई व्यक्ति गलत कार्य करने के लिए जाता है तो उसकी अंतरात्मा एक बार उसे जरूर रोकती है,अगर आत्मा की आवाज को सुन लेता है तो वह उन गलत रास्ते पर जाने से बच जाता है।

मुनिश्री विनंद सागर महाराज ने कहा हमारी अंतरात्मा हमें तीन बार सतर्क करती हैं, यदि हम सतर्क हो जाएं तो हम उन सभी गलत गतिविधियों से बच जाते हैं। लेकिन जब हम इंद्रियों के वशिभूत होते हैं, विकारों के वश में होते हैं तब हम अंतरात्मा की आवाज पर ध्यान नहीं देते और यह हमारे जीवन की सबसे बड़ी गलती होती है।चार भागों में जीवन को जीना चाहिए।धर्म अर्थ काम मोक्ष जन्म लेते ही शिक्षा और संस्कार के द्वारा हम अपने जीवन यापन के लिए अर्थ के लिए व्यापार आदि करते हैं काम के लिए अर्थ की आवश्यकता है | हमारे जीवन का मूल धर्म है, ऐसा धर्म कार्य करते हुए अपने कर्तव्य को निर्वहन करते हुए अपने जीवन को सार्थक करते हुए मोक्ष प्राप्ति का उपाय करना चाहिए।

सामाजिक परिवेश में भी व्यापार आदि में भी प्रत्येक व्यक्ति अपने पुण्य के अनुसार फल को प्राप्त करता है ।किसी के पुण्य के अधीन वैभव को देखकर के अथवा किसी की बढ़ती को देखकर के हमे ईर्ष्या न हो।प्रत्येक जीवों पर करुणा भाव रखना चाहिए ।जो हमारे पास है उसमें संतुष्टि रखते हुए संतोष रूपी अमृत का पान करना चाहिए। अगर हमें अंतरंग संतुष्टि है तो वही सबसे बड़ा सुख है। मुनिश्री ने दान की महिमा को अद्भुत बताते हुए कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने द्वारा अर्जित आय में से दान अवश्य करना चाहिए। यह दान हमें इस भव में भी और परभव में भी सुख को दिलाता है। इसमें भी दान अगर उत्तम पात्र को दिया जाए तो वहां सर्वोत्तम फल दिलाता है ।मध्यम पात्र एवं जघन्य पात्र को दान देने से भी फल की प्राप्ति होती है।

आज के इस भौतिकतावादी युग की चकाचौंध में हम अपने संस्कारों को भूलते जा रहे हैं और येन-केन प्रकारेण धन संग्रह करना चाहते हैं ।हमें पता है कि जीवन का सबसे बड़ा सच मृत्यु है और जब मृत्यु आती है हमारे साथ कुछ नही जाने वाला है ।साथ में केवल हमारे कर्म ,हमारा ज्ञान जो हमने संग्रहित किया है वही हमारे साथ जाते हैं ।इसलिए अपनी गलतियों को सुधारने का प्रयास करना चाहिए ।अगर व्यक्ति में स्वीकारने की हिम्मत हो और सुधरने की नियत हो तो वह देवत्व को प्राप्त कर लेता है ।यह हमारे परिणाम को निर्मल करता है ।राजश्री राजेंद्र जैन अंगोत्री परिवार द्वारा शांति धारा का पुण्यर्जन प्राप्त कर जिनेंद्र देव की शांति धारा का सौभाग्य प्राप्त किया गया ।

दर्शन स्तुति करते हुए दर्शन भाव कैसे होना चाहिए मुनिश्री ने बताया। मुनिश्री विनंद सागर महाराज ने कहा उत्तम भावों का उत्तम फल प्राप्त होता है।जब हम भगवान के दर्शन हेतु मंदिर आते हैं तो हमें जिनेंद्र भगवान को एक टक निहार के दर्शन करना चाहिए ।जिनके अंग- अंग से शांति की धारा प्रस्फुटित हो रही हो,उनके गुणों की प्रशंसा करते हुए उनके गुणों की प्राप्ति का एक साधन दर्शन है ।अपने अवगुणों को अपने दुखों को भगवान को बताते हैं ,उनसे वार्तालाप करते हैं हे भगवान आप तो तारण हारे हो मेरी नाव इस संसार सागर में अटकी हुई है,भव सागर में ,भ्रम के कारण मैं भटक रहा हूं ,केवल आप ही खेवटिया हो आप ही पार लगाने वाले हो ।

आप भगवान मेरी नाव पर विराजमान होंगे तो मेरी नाव इस भव से निश्चित पार हो जावेगी। हे भगवान अभी तक मैं मोह रूपी मद्य का बहुत पान किया है ,इस कारण में संसार सागर में राग और द्वेष से ग्रसित होकर के भटक रहा हूं ।हे नाथ केवल आप ही वीतरागी हो, खेवटिया हो जो मेरी इस नाव को भव से पर लगा सकते हो, हे जिनेंद्र भगवान मैंने कभी नरक गति के दुःखों को भोगा, कभी त्रियंच के दुख , भूख ,प्यास ,छेदन ,भेदन आदि दुखो को भोगा।अब इस मनुष्य गति में आपकी शरण ही सुख देने वाली है ,इस मनुष्य भव में आकर धन्य हो गया हूं ।हे जिनेंद्र देव आपको सुरपति ,देवेंद्र ,अहिपति,नरपति सभी पूजते हैं ।आज मेरा भाग्योदय ही हुआ है जब मैं आपकी सेवा में आया हूं ।

हे भगवन इस संसार में आप ही उत्तम शरण है ,आप ही निराधार के आधार हैं। इंद्र आदि देव भी आपके गुणों का गान करने में सक्षम नहीं है ।हे भगवान तो मैं किस प्रकार से सक्षम हो सकता हूं ,इसलिए आप मेरे अवगुण को ध्यान में ना रखते हुए मुझे अपनी शरण प्रदान करो ।हे भगवान जिस पर आपकी कृपा दृष्टि हो जावे वे संसार से निश्चित ही पार हो जाते हैं ।हे प्रभु मुझ पर भी अपनी कृपा दृष्टि करो ,मुझे इस भवसागर से पार उतारो। संसार में चार मंगल हैं ,ऐसे मंगलकारी भगवान की आराधना सर्व विघ्नों को,सभी पापों को नाश करने वाली है। ऐसे उत्तम भावों से जिनेंद्र भगवान के दर्शन करने संसार का वैभव,स्वर्ग का वैभव सहज मिलता है तथा अनंत सुख की संपदा भी मिल जाया करती है।

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