updatenews247.com धंनजय जाट आष्टा 7746898041- भक्ति ही मुक्ति का दाता है ,इसलिए भक्ति में विकल्प नहीं करना चाहिए। हम अपने आलस्य और प्रमाद के वशीभूत होकर सभी में दूसरा विकल्प खोजने का प्रयास करते हैं, जो सही नहीं है ।यह संसार के सुख केवल त्याग से ही प्राप्त हुआ करते हैं, हम जितना छोड़ेंगे हमें उतना ही प्राप्त होगा। तप संयम की शक्ति भी हमें त्याग से प्राप्त हुआ करती है। ऐसे मुनिराज उग्रतप के धारी हुआ करते हैं जो प्रति दिन उपवास की संख्या बढ़ाते हुए अपने तप, संयम के बल में निरंतर वृद्धि करते रहते हैं।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर्व पर कहां कि श्रीकृष्ण नवें नारायण थे,उन्हें गोपाल भी कहा जाता है। गोपाल इसलिए कि उनके मन में गायों की प्रति विशेष संवेदना थी। वह गऊ पालक थे, आज हमारी गौ माताएं सड़कों पर वैसे घूमती रहती हैं जो हमें अपना सर्वस्व देकर हमारा पालन करती हैं ।गौ माता को आज भोजन भी अच्छे से प्राप्त नहीं हो पाता है, हमें श्री कृष्ण के सिद्धांतों के पालन करने की आवश्यकता है। मित्रता सीखना है तो श्रीकृष्ण से सीखों, उन्होंने अपने बाल सखा सुदामा को कितनी आत्मीयता से सिंहासन पर बैठा कर सब कुछ बिना बताए दिया।

उक्त बातें नगर के अरिहंतपुरम अलीपुर के श्री चंद्र प्रभ दिगंबर जैन मंदिर में चातुर्मास हेतु विराजित पूज्य गुरुदेव मुनिश्री विनंद सागर जी महाराज महाराज ने आशीष वचन देते हुए कहीं। मुनिश्री के केश लोचन देखकर चार लोगों ने आजीवन मांस और मदिरा सेवन नहीं करने का संकल्प लिया। ज्ञात रहे कि जैन मुनि कभी भी दाढ़ी -कटिंग नहीं बनवाते हैं, वह अपने बालों को अपने हाथों से उखाड़ते हैं। एक समय आहार ग्रहण करते हैं, वह भी विधि मिलने पर ही प्राप्त करते हैं। मुनिश्री विनंद सागर महाराज का आज उपवास था।केश लोच के समय समाज के श्रावकगण के अलावा अन्य समाज जन उपस्थित थे।

गुरुदेव की केश लोच की चर्या एवं उनकी कठोर तपश्चार्य से प्रभावित होकर दिलीप मेवाड़ा, राकेश मालवीय ,भविष्य बागवान एवं कमल मेवाड़ा ने आजीवन मांस एवं मदिरा का त्याग किया। तत्पश्चात आज गुरुदेव ने भक्तांबर महामंडल विधान के अंतर्गत 25 वें काव्य का शुद्ध उच्चारण करवाया और उसके फल में कहां कि यहां दृष्टि रोग निवारक काव्य है। दृष्टि दो प्रकार की हुआ करती है अंतरंग एवं बहिरंग। अंतरंग दृष्टि हमारी मान्यता है और बहिरंग दृष्टि बाहरी दृश्य है ।हमारे मान्यता में जो चीज एक बार दृढ़ हो जाती है ,वह हमारे संस्कार हैं। द्रव क्षेत्र, काल भाव के अनुसार हमारी मान्यता बन जाती है और मान्यता की पुष्टि न होने पर इसका विरोध भी होता है। किंतु हमें अपनी मान्यताओं को निडर रखते हुए अन्य मान्यताओं का विरोध ना हो इस तरह से कार्य करना चाहिए।

हमें सदैव बहुमुखी दृष्टि रखना चाहिए ।हंस की तरह गुण ग्रहणता का भाव रखना चाहिए ।जिनेंद्र भगवान की पूजा के संबंध में गुरुदेव ने कहा कि पूर्व में जो द्रव्य सामग्री से हम पूजा करते थे,वही व्यवस्था आज भी लागू है।जबकि भगवान को जल ,चंदन ,अक्षत ,पुष्प, नैवेद्य ,दीपक, धूप, फल और अर्घ्य यह सब भाव से और और वैसे ही चढ़ाना चाहिए जैसा हम पूजा में पढ़ते हैं ।इन सबको चढ़ाने का विशेष फल हैं।25 वें काव्य का अर्थ बताते हुए गुरु ने कहा हे भगवान आप पूर्ण ज्ञान के धारी और देवताओं द्वारा पूजित हैं तथा आप ही बुद्ध हैं ।आप समस्त सुख देने वाले हैं तथा आप ही शंकर हैं ,आप ही विधाता और मोक्ष पुरुषार्थ करने वाले आप ही पुरुषोत्तम हैं।

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