धंनजय जाट/आष्टा। आज के समय में अधिकांश श्रावक – श्राविकाएं स्वाध्याय तो करते हैं लेकिन मन की मलिनता नहीं हट रही है। उसका कारण भी यह है कि आप लोगों का मन धर्म -ध्यान एवं स्वाध्याय के दौरान अधिक भटकता है।

एकाग्र चित्त होकर अगर स्वाध्याय करेंगे तो मन की मलिनता दूर होगी साथ ही पुण्य का अर्जन होगा। उक्त बातें संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर महाराज की परम प्रभाविका शिष्या आर्यिका रत्न पूर्णमति माताजी ने आशीष वचन देते हुए कहीं।

आर्यिका श्री पूर्ण मति माता जी ने प्रवचन में बताया कि अगर तुम से कोई द्वेष करता है तो तुम भी उससे द्वेष करने लगते हो,जैसा माहौल मिलता है वैसा हम करने लगते है।प्रभु कौन सी भूल हो रही है, जो आप जैसा नही बन पा रहा हूं।

मेरे अंदर वह वीतरागता प्रगट क्यो नही हो पा रही है,आप जैसा ज्ञानी नही बन पा रहा हूं।स्वाध्याय करता हूं पर मन की मलिनता नही जा रही। इन सब बातों का एक ही जवाब है हमारे द्वारा होने वाली धार्मिक क्रिया मात्र क्रिया ही बन कर रह गई है।

दो घड़ी निज नाथ के नजदीक तो आओ अपनी प्रभुता देख लो बाहर न भरमाओ, आपकी आत्मा आनंद कंद है, गुण चेतन्य है, संसार में जो कुछ भी दिख रहा है सब कुछ मिटने वाला है नाशवान है।जो सब को दिख रहा है वह एक दिन मिटने वाला है।

मानतुंग आचार्य को अडतालीस तालों में कैद कर दिया गया था, आचार्य श्री कहते है मुझे कैद कर दोगे पर मेरी आत्मा को कैद नही कर पाओगे ,वे आदिनाथ भगवान की भक्ति में इतने लीन हो गए कि उन्होंने अपनी भक्ति के माध्यम से ही अनंत शक्ति प्रकट हो गई थी,

ऐसे थे हमारे महान आचार्य मानतुंग महाराज जी। लक्ष्य की ओर बढ़ने का आपने सभी से आह्वान किया।आज‎ का यह आयोजन भी इसी उद्देश्य‎‎ को लेकर किया गया है।

परिवार-पद-पैसा यह संसार को बढ़ाने वाले‎ हैं, मुक्ति के लिए भक्ति- तपस्या जरूरी‎
आर्यिका रत्न पूर्णमति माताजी ने आगे कहा‎ संसार में प्रेम-भाव आदर्श होता है,‎ धन-संपत्ति नहीं। परिवार, पद, पैसा‎ यह सब संसार को बढ़ाने वाले हैं,‎ संसार से मुक्ति के लिए तो भगवान व गुरु भक्ति‎, तपस्या ही जीवन को सार्थक सिद्ध‎ करती है।

द्वार पर आए दीन दुखी‎ को निराश नहीं लौटाए वही सच्चा‎ संत होता है। धर्मवाणी को श्रवण‎ कर जीवन में आत्मसात करें और‎ अपने चरित्र में लागू करें तभी वह‎ जीवन को सार्थक सिद्ध कर सकती‎ हैं। आपने कहां कि पवित्र‎ भाव के बिना आत्मा का कल्याण‎ नहीं हो सकता है। मंदिर में प्रभु‎ प्रतिमा दर्शन करते समय एकाग्रता‎ होनी चाहिए, तभी दर्शन सार्थक‎ सिद्ध होते हैं।

मंदिर में पूजा मन से‎ होना चाहिए ,दिखावे के लिए नहीं।‎ जिसने परमात्मा को केंद्र में रखा‎ उसे अगले जन्म में परमात्मा‎ महावीर जैसे गुण के संस्कार‎ मिलते हैं। जब व्यक्ति अपने लिए‎ कपड़े खरीदता है, लेकिन‎ परमात्मा के बारे में नहीं सोचता‎ है। अपने लिए सुख सुविधाएं‎ जुटाता है ,लेकिन परमात्मा के लिए‎ नहीं सोचता है।

यह चिंतन का‎ विषय है, जो व्यक्ति अपने लिए‎ उत्तम द्रव्य पसंद करता है तो‎ भगवान के लिए भी उत्तम द्रव्य ही‎ चढ़ाना चाहिए। आर्यिका रत्न पूर्णमति माताजी ने अपने संघ के साथ इंदौर की ओर विहार किया।‎

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