

updatenews247.com धंनजय जाट आष्टा 7746898041- श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन दिव्योदय अतिशय तीर्थ क्षेत्र, किला मंदिर में आयोजित धर्मसभा में आचार्य विनिश्चय सागर मुनिराज के परम प्रभावक शिष्य मुनिश्री प्रवर सागर मुनिराज ने कहा कि “जिनवाणी और जिनागम का रसपान करना सामान्य पुरुषार्थ नहीं है।” उन्होंने समाज में बढ़ती साधु-विमुखता पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि वर्तमान समय में मनुष्य अपने ही धर्म की मूल आत्मा को पहचान नहीं पा रहा। मुनिराज ने स्पष्ट कहा कि भरत-ऐरावत क्षेत्र के जन्मों में मिथ्यात्व की प्रधानता के कारण जीव आत्मतत्त्व से घृणा कर रहे हैं; ऐसे जीव सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सकते।

आचार्य समंतभद्र स्वामी के वचन उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा—“जो जीव स्वभाव रत्नत्रय से पवित्र है, वही सम्यक्त्व को प्राप्त करता है।” साधु को देखकर घृणा सम्यकदृष्टि में नहीं—मुनिराज मुनिश्री के अनुसार सम्यकदृष्टि जीव में साधुओं के प्रति कोई घृणा उत्पन्न नहीं होती, बल्कि श्रद्धा और समर्पण का भाव बढ़ता है। उन्होंने कहा कि आज अनेक लोग स्वयं को सम्यकदृष्टि मानते हैं, पर साधुओं की चर्या देखकर उनमें अनुराग के बजाय विरोध उत्पन्न होता है। ऐसे व्यक्तियों में धर्म की समझ अभी परिपक्व नहीं है। “जिनमें धर्म की समझ आ रही है, उनमें रत्नत्रय प्रकट हो रहा है।”

दिगंबर साधु की महिमा—अणुव्रत ग्रहण का प्रेरक प्रसंग
सभा में एक प्रेरक प्रसंग का उल्लेख करते हुए मुनिराज ने बताया कि मंदिर में साउंड सिस्टम लगाने वाले मूलचंद पटवा ने मुनिश्री सजग सागरजी एवं सानंद सागरजी के सानिध्य में अणुव्रत ग्रहण कर जमीकंद समेत अनेक व्यसनों का त्याग कर दिया। मुनिश्री ने कहा— “ऐसे त्यागी व्यक्तियों का समाज द्वारा सम्मान होना चाहिए। दिगंबर साधु की महिमा का प्रभाव गैर-जैनों को भी जैनत्व की ओर अग्रसर कर रहा है।”नाम, पद या वेश से नहीं—रत्नत्रय से प्रभावित हो आत्मा
मुनिराज ने कहा कि लोग आज साधु की पिच्छिका, कमंडल या नाम-यश देखकर तो प्रभावित होते हैं, किंतु धर्म का सार रत्नत्रय (सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र) है।

उन्होंने कहा“यदि आप नाम से प्रभावित होते हैं तो आत्मा तीनों काल में प्रभावित नहीं होगी। आत्मगुणों की वृद्धि तप, रत्नत्रय और साधु-भाव से होती है, नाम और वेश से नहीं।” साधु आहार चर्या—समर्पण से मिलता है पुण्य
मुनिराज ने बताया कि दिगंबर साधु आहार लेने से पूर्व भगवान की प्रतिमा के समक्ष कठोर विधि भी लेते हैं। वे तप कर रहे हैं, अपनी चर्या के माध्यम से आत्मा को तपा रहे हैं।उन्होंने कहां“यदि मुनि नगर में आएँ तो भूकंप आ जाता है और लोग परेशान हो जाएँ कि कौन चौका खोलेगा, कौन पड़गान करेगा—तो यह पुण्य से विमुख होने का संकेत है।”पूर्वकाल का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा—“पहले हर घर में शुद्ध भोजन बनता था और

किसी भी साधु का पड़गान सहज हो जाता था। आज साधु नगर में आ जाएँ तो मानो भूकंप आ जाता है!”साधु के प्रति क्लेश पाप, उत्साह पुण्य- मुनिश्री प्रवर सागर मुनिराज ने स्पष्ट कहा कि साधु के प्रति क्लेश, संशय या गलत भाव पाप का कारण है।उन्होंने कहा—“यदि आपके पास पुण्य होगा, सम्यक दर्शन होगा, तो चौका खाली नहीं जाएगा। आचार्य श्री भी आपके घर आहार के लिए आएँगे। लेकिन झूठ बोलकर या अशुद्ध आहार देकर साधुओं को धोखा देते हैं तो नरक की तैयारी कर रहे हैं।” शुद्धि और सत्य महत्वपूर्ण—साधु से मायाचारी न करें
मुनिश्री प्रवर सागर ने कहा कि साधु-संत शुद्धि बुलवाकर निश्चिंत होकर आहार ग्रहण करते हैं,

यह विश्वास की परंपरा है।उन्होंने चेताया— “बिना मियाद की या अशुद्ध सामग्री साधु को देने वाला पाप का आश्रव करता है। साधु के प्रति मायाचारी कभी न करें; यह भव-भव में दुर्गतियों का कारण बनता है।” धर्म का सार—साधु-भाव और रत्नत्रय की प्रतिष्ठा- अपने उपसंहार में मुनिराज ने कहा कि दिगंबर साधु की चर्या स्वयं में तप, संयम और आत्मशुद्धि का मार्ग है। समाज में साधु के प्रति श्रद्धा, रुचि और समर्पण का भाव जागृत होना चाहिए।उन्होंने कहा—“साधु आते हैं तो आपका धर्म और पुण्य बढ़ता है। यदि स्वागत भाव है तो पुण्य बढ़ेगा, और यदि क्लेश है तो पाप बढ़ेगा। साधु को सम्मानित करो, धर्म को आत्मसात करो—तभी रत्नत्रय आत्मा में प्रकट होगा।”
